09 February, 2006

बाल कविताएँ

देल छे आए
बाबा आज देल छे आए,
चिज्जी पिज्जी कुछ ना लाए।
बाबा क्यों नहीं चिज्जी लाए,
इतनी देली छे क्यों आए।
कां है मेला बला खिलौना,
कलाकंद, लड्डू का दोना।
चूं चूं गाने वाली चिलिया,
चीं चीं करने वाली गुलिया।
चावल खाने वाली चुहिया,
चुनिया-मुनिया, मुन्ना भइया।
मेला मुन्ना, मेली गैया,
कां मेले मुन्ना की मैया।
बाबा तुम औ कां से आए,
आं आं चिज्जी क्यों ना लाए।
-श्रीधर पाठक
( 1860 )
एक बूँद
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़ कर मैं यों कढ़ी
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वो समन्दर ओर आयी अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी
लोग यौं ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर !
-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध`
(1865 - 1947)
लड्डू ले लो
ले लो दो आने के चार
लड्डू राज गिरे के यार
यह हैं धरती जैसे गोल
ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल
इनके मीठे स्वादों में ही
बन आता है इनका मोल
दामों का मत करो विचार
ले लो दो आने के चार।
लोगे खूब मज़ा लायेंगे
ना लोगे तो ललचायेंगे
मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
हँसी खुशी से सब खायेंगे
इनमें बाबू जी का प्यार
ले लो दो आने के चार।
कुछ देरी से आया हूँ मैं
माल बना कर लाया हूँ मैं
मौसी की नज़रें इन पर हैं
फूफा पूँछ रहे क्या दर है
जल्द खरीदो लुटा बजार
ले लो दो आने के चार।
-माखनलाल चतुर्वेदी
(1889 - 1968)
तिल्ली सिंह
पहने धोती कुरता झिल्ली
गमछे से लटकाये किल्ली
कस कर अपनी घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह जा पहुँचे दिल्ली
पहले मिले शेख जी चिल्ली
उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली
बिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली
उसने धर दबोच दी बिल्ली
मरी देख कर अपनी बिल्ली
गुस्से से झुँझलाया चिल्ली
लेकर लाठी एक गठिल्ली
उसे मारने दौड़ा चिल्ली
लाठी देख डर गया तिल्ली
तुरत हो गयी धोती ढिल्ली
कस कर झटपट घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह ने छोड़ी दिल्ली
हल्ला हुआ गली दर गल्ली
तिल्ली सिंह ने जीती दिल्ली!
-रामनरेश त्रिपाठी
(1889 - 9162)
घूम हाथी, झूम हाथी
घूम हाथी, झूम हाथी, घूम हाथी, झूम हाथी!
हाथी झूम झूम झूम!
हाथी घूम घूम घूम!!
राजा झूमें रानी झूमें, झूमें राजकुमार
घोड़े झूमें फौजें झूमें, झूमें सब दरबार
झूम झूम घूम हाथी, घूम झूम झूम हाथी!
हाथी झूम झूम झूम!
हाथी घूम घूम घूम!!
राज महल में बाँदी झूमे, पनघट पर पनिहारी
पीलवान का अंकुश झूमें सोने की अम्बारी
झूम झूम घूम हाथी, घूम झूम झूम हाथी!
हाथी झूम झूम झूम!
हाथी घूम घूम घूम!!
-विद्याभूषण 'विभु`
(1892 - 1965)
एक सवाल
आओ, पूछें एक सवाल
मेरे सिर में कितने बाल ?
कितने आसमान में तारे ?
बतलाओ या कह दो हारे
नदिया क्यों बहती दिन रात ?
चिड़ियाँ क्या करती हैं बात ?
क्यों कुत्ता बिल्ली पर धाए ?
बिल्ली क्यों चूहे को खाए ?
फूल कहाँ से पाते रंग ?
रहते क्यों न जीव सब संग ?
बादल क्यों बरसाते पानी ?
लड़के क्यों करते शैतानी ?
नानी की क्यों सिकुड़ी खाल ?
अजी, न ऐसा करो सवाल
यह सब ईश्वर की है माया
इसको कौन जान है पाया !
-ठाकुर श्रीनाथ सिंह
(1901 - 1996)
नटखट हम, हां नटखट हम !
नटखट हम हां नटखट हम,
करने निकले खटपट हम
आ गये लड़के आ गये हम,
बंदर देख लुभा गये हम
बंदर को बिचकावें हम,
बंदर दौड़ा भागे हम
बच गये लड़के बच गये हम,
नटखट हम हां नटखट हम !
बर्र का छत्ता पा गये हम,
बांस उठा कर आ गये हम
छत्ता लगे गिराने हम,
ऊधम लगे मचाने हम
छत्ता टूटा बर्र उड़े,
आ लड़कों पर टूट पड़े
झटपट हट कर छिप गये हम,
बच गये लड़के बच गये हम !
बिच्छू एक पकड़ लाये,
उसे छिपा कर ले आये
सबक जांचने भिड़े गुरू,
हमने नाटक किया शुरू
खोला बिच्छू चुपके से,
बैठे पीछे दुबके से
बच गये गुरु जी खिसके हम,
पिट गये लड़के बच गये हम !
बुढ़िया निकली पहुँचे हम,
लगे चिढ़ाने जम जम जम
बुढ़िया खीझे डरे न हम,
ऊधम करना करें न कम
बुढ़िया आई नाकों दम,
लगी पीटने धम धम धम
जान बचा कर भागे हम,
पिट गये लड़के बच गये हम!
-सभामोहन अवधिया 'स्वर्ण सहोदर`
(1902 - 1980)
यह कदम्ब का पेड़ !
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।
-सुभद्रा कुमारी चौहान
(1904 - 1948)
कबूतर
भोले-भाले बहुत कबूतर
मैंने पाले बहुत कबूतर
ढंग ढंग के बहुत कबूतर
रंग रंग के बहुत कबूतर
कुछ उजले कुछ लाल कबूतर
चलते छम छम चाल कबूतर
कुछ नीले बैंजनी कबूतर
पहने हैं पैंजनी कबूतर
करते मुझको प्यार कबूतर
करते बड़ा दुलार कबूतर
आ उंगली पर झूम कबूतर
लेते हैं मुंह चूम कबूतर
रखते रेशम बाल कबूतर
चलते रुनझुन चाल कबूतर
गुटर गुटर गूँ बोल कबूतर
देते मिश्री घोल कबूतर।
-सोहन लाल द्विवेदी
(1906 - 1988)
कहां रहेगी चिड़िया ?
आंधी आई जोर शोर से
डाली टूटी है झकोर से
उड़ा घोंसला बेचारी का
किससे अपनी बात कहेगी
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?
घर में पेड़ कहाँ से लाएँ
कैसे यह घोंसला बनाएँ
कैसे फूटे अंडे जोड़ें
किससे यह सब बात कहेगी
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?
-महादेवी वर्मा
(1907 - 1987)
चांद का कुर्ता
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो मा मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!
-रामधारी सिंह 'दिनकर`
(1908 - 1974)
बाबा जी की छींक
घर - भर को चौंकाने वाली
बाबा जी की छींक निराली।।
लगता यहीं कहीं बम फूटा
या कि तोप से गोला छूटा
या छूटी बन्दूक दुनाली
बाबा जी की छींक निराली।।
सोया बच्चा जगा चौंक कर
झबरा कुत्ता भगा भौंक कर
झन्ना उठी कांस की थाली
बाबा जी की छींक निराली।।
दिन में दिल दहलाने वाली
गहरी नींद हटाने वाली
बाबा जी की छींक निराली।।
कभी कभी तो हम डर जाते
भग कर बिस्तर में छिप जाते
हँस कर कभी बजाते ताली
बाबा जी की छींक निराली।।
-रमापति शुक्ल
(1909)
निम्मी का परिवार
निम्मी का परिवार निराला
कभी न होता गड़बड़झाला
सबका अपना काम बँटा है
कूड़ करकट अलग छंटा है।
झाड़ू देती गिल्लो मिल्लो
चूल्हा चौका करती बिल्लो
टीपू टामी देते पहरा
नहीं एक भी अंधा बहरा।
चंचल चुहिया चाय बनाती
चिड़िया नल से पानी लाती
निम्मी जब रेडियो बजाती
मैना मीठे बोल सुनाती।

-कन्हैया लाल 'मत्त`
(1911 - -2003)
सैर सपाटा
कलकत्ते से दमदम आए
बाबू जी के हमदम आए
हम वर्षा में झमझम आए
बर्फी, पेड़े, चमचम लाए।
खाते पीते पहुँचे पटना
पूछो मत पटना की घटना
पथ पर गुब्बारे का फटना
तांगे से बेलाग उलटना।
पटना से हम पहुँचे रांची
रांची में मन मीरा नाची
सबने अपनी किस्मत जांची
देश देश की पोथी बांची।
रांची से आए हम टाटा
सौ सौ मन का लो काटा
मिला नहीं जब चावल आटा
भूल गए हम सैर सपाटा !


-आरसी प्रसाद सिंह
(1911 - 1996)
साल शुरू हो, साल खत्म हो !

साल शुरू हो दूध दही से
साल खत्म हो शक्कर घी से
पिपरमैंट, बिस्कुट मिसरी से
रहें लबालव दोनों खीसे
मस्त रहें सड़कों पर खेलें
ऊधम करें मचाएँ हल्ला
रहें सुखी भीतर से जी से।
सांझ, रात, दोपहर, सवेरा
सबमें हो मस्ती का डेरा
कातें सूत बनाएँ कपड़े
दुनिया में क्यों डरें किसी से
पंछी गीत सुनाये हमको
बादल बिजली भाये हमको
करें दोस्ती पेड़ फूल से
लहर लहर से नदी नदी से
आगे पीछे ऊपर नीचे
रहें हंसी की रेखा खींचे
पास पड़ौस गाँव घर बस्ती
प्यार ढेर भर करें सभी से।
-भवानी प्रसाद मिश्र
(1913 - 1985)
बादल आया
बादल आया झूम के,
पर्वत चोटी चूम के।
इन्द्रधनुष का पहने हार,
ले आया वर्षा की धार।
मेंढ़क राजा मगन हुए,
झींगुर के सुख सपन हुए।
कजरी की धुन आती है,
नन्हीं चिड़िया गाती है।

गुड़िया की परेशानी
रोती रोती गुड़िया आई
किससे अपनी बात कहूँ
चूँ चूँ ने आफत कर डाली
ऐसे घर में कहाँ रहूँ?
कुतरी चुनरी गोटे वाली
लाल रंग की प्यारी प्यारी
डाल नहीं घूँघट पाऊँगी
दूल्हे संग कैसे जाऊँगी
मर जाऊँगी लाज की मारी
कैसे अब ससुराल रहूँ?
-शकुंतला सिरोठिया
(1915 - 2005)

बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
साथ में ध्वजा रहे
बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं
दल कभी रुके नहीं।
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर,हटो नहीं
तुम निडर,डटो नहीं
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
-द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी
(1916 - -1998)

जादूगर अलबेला
छू काली कलकत्ते वाली
तेरा वचन न जाए खाली
मैं हूँ जादूगर अलबेला
असली भानमती का चेला
सीधा बंगाले से आया
जहाँ जहाँ जादू दिखलाया
सबसे नामवरी है पाई
उंगली दाँतों तले दबाई
जिसने देखा, खेल निराला
जम कर खूब बजाई ताली
चाहूँ तिल का ताड़ बना दूँ
रुपयों का अंबार लगा दूँ
अगर कहो तो आसमान पर
तुमको धरती से पहुंचा दूँ
ऐसे ऐसे मंतर जानूँ
दुख संकंट छू मंतर कर दूँ
बने कबूतर, बकरी काली।
-चन्द्रपाल सिंह यादव 'मयंक`
(1925 - 2000)



पैसा पास होता
पैसा पास होता तो चार चने लाते
चार में से एक चना तोते को खिलाते
तोते को खिलाते, तो टाँव-टाँव गाता,
टाँव-टाँव गाता तो बड़ा मज़ा आता।
पैसा पास होता तो चार चने लाते,
चार में से एक चना घोड़े को खिलाते
घोड़े को खिलाते, तो पीठ पर बिठाता
पीठ पर बिठाता तो बड़ा मज़ा आता।
पैसा पास होता तो चार चने लाते
चार में से एक चना चूहे को खिलाते
चूहे को खिलाते तो दाँत टूट जाता
दाँत टूट जाता तो बड़ा मज़ा आता।
-निरंकार देव 'सेवक`
(1919 - 1994)
राजा-रानी
एक था राजा
एक थी रानी
दोनों करते थे
मन मानी
राजा का तो
पेट बड़ा था
रानी का भी
पेट बड़ा था
खूब वे खाते थे
छक छक कर
फिर सो जाते थे
थक थक कर
काम यही था
बक-बक, बक-बक
नौकर से बस
झक-झक, झक-झक।
-जयप्रकाश भारती
(1936 - 2005)
बतूता का जूता
इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता
उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दुकान में।
-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
(1927 - 1983)
बाज़ीगर
बाज़ीगर ने खेल दिखाया
सबका मन बहलाया
डमरू बजा बजाकर उसने
पहले भीड़ जुटाई
गुड्डा कभी दिखाकर गुड़िया
बातें खूब बनाई
करतब दिखलाने से पहले
सबको खूब रिझाया।
रुपया एक लिया हाथों में
फौरन दो कर डाले
दो के चार बनाए उसने
फिर अनगिनत उछाले
रुपये इतने देखे जब, तब
अपना मन ललचाया।
खाली बर्तन लिया हाथ में
उलटा कर दिखलाया
फिर जाने क्या मंतर मारा
जल उसमें छलकाया
छींटे मार भिगोया सबको
ऐसी उसकी माया।
-रमेश कौशिक
(1930)
कोई लाके मुझे दे
कुछ रंग भरे फूल
कुछ खट्टे-मीठे फल
थोड़ी बांसुरी की धुन
थोड़ा जमुना का जल
कोई लाके मुझे दे
एक सोना जड़ा दिन
एक रूपों भरी रात
एक फूलों भरा गीत
एक गीतों भरी बात
कोई लाके मुझे दे
एक छाता छाँव का
एक धूप की घड़ी
एक बादलों का कोट
एक दूब की घड़ी
कोई लाके मुझे दे
एक छुट्टी वाला दिन
एक अच्छी सी किताब
एक मीठा-सा सवाल
एक नन्हा-सा जवाब
कोई लाके मुझे दे
-दामोदर अग्रवाल
(1932)


हल्लम हल्लम हाथी
हल्लम हल्लम हौदा हाथी चल्लम चल्लम
हम बैठे हाथी पर,हाथी हल्लम हल्लम
लम्बी लम्बी सूँड़ फटा फट फट्टर फट्टर
लम्बे लम्बे दाँत खटा खट खट्टर खट्टर
भारी भारी सूँड़ मटकता झम्मम झम्मम
पर्वत जैसी थुलथुली थल्लम थल्लम
हल्लर हल्लर देह हिले जब हाथी चल्लम
खम्भे जैसे पांव धमा धम धम्मम धम्मम
हाथी जैसी नहीं सवारी अग्गड़ बग्गड़
पीलवान पुच्छन बैठा है बांधे पग्गड़
बैठे बच्चे पीठ सभी हम डग्गम डग्गम
-डॉ. श्री प्रसाद
(1932)

कंतक थैया,घुनू मनइयाँ
कंतक थैया, घुनूँ मनइयाँ
चंदा भागे पइयाँ पइयाँ
यह चंदा हलवाह है
नीले नीले खेत में
बिल्कुल सैत मेत में
रत्नों भरे खेत में
किधर भागता लइयाँ पइयाँ
अंधकार है घेरता
टेढ़ी आँखें हेरता
चांद नहीं मुँह फेरता
राकेट को है टेरता
मुन्नू को लूँगा मैं दइयाँ
मिट्टी के बादलों के राजा
ताली तेरी बुढ़िया बाजा
छोटा छोटा छोकरा
सिर पर रक्खे टोकरा
बने डोकरा करुँ बलइयाँ
कंतक थैया घुनूँ मनइयाँ
-श्रीकृष्ण चंद्र तिवारी 'राष्ट्रबंधु`
(1933)
सच्चा दानी
पेड़ किसी से नहीं पूछता
कहो, कहाँ से आए ?
वह तो बस कर देता छाया
चाहे जो सुस्ताए!
खिलते समय न फूल सोचता
कौन उसे पाएगा?
उसकी खुशबू अपनी सांसों में
भर इतराएगा!
बादल से जब सहा न जाता
अपने जल का संचय
बस, वह बरस-बरस भर देता
नदियाँ, नहर, जलाशय!
जो स्वभाव से ही दाता है
उन्हें न कोई भ्रम है
भेदभाव करते हैं वे ही
जिनकी पूजा कम है।
-बालस्वरुप राही
(1936)

धूप खिली है!
मम्मी देखो सूरज निकला
कई दिनों में धूप खिली है
घुमड़-घुमड़ कर काले बादल
बारिश कर जाते थे झर-झर
हम कोनों में छिप जाते थे
आंधी बिजली से डर-डर कर
जाने कैसे आज अचानक
थोड़ी राहत हमें मिली है।
इक्का दुक्का बादल अब भी
घूम रहे हैं आसमान में
कभी अचानक मिल जाते हैं
बातें करते कान-कान में
सैर सपाटा करने को फिर
चिड़ियों की टोली निकली है।
मम्मी, पापा जी से कह दो
संभल-संभल कर जाएं दफ्तर
कपड़े गंदे हो सकते हैं
छींटे आ जाते हैं उड़कर
नीली पैंट न हरगिज़ पहनें
कुछ दिन पहले नई सिली है।
ऱ्योगेन्द्र कुमार लल्ला
(1937)
नए साल में

ताजे सुंदर फूल खिलेंगे
नए साल में
नए-पुराने मित्र मिलेंगे
नए साल में
भैया-दीदी खूब पढ़ेंगे
कोई कितनी करे शरारत
नहीं लड़ेंगे
नए साल में
रंग खुशी का चोखा होगा
नए साल में
हर त्यौहार अनोखा होगा
स्वस्थ रहेंगी प्यारी दादी
नए साल में
गुड़िया की भी होगी शादी
नए साल में
अच्छे अच्छे काम करेंगे
नए साल में
सीधे सच्चे नहीं डरेंगे
नए साल में
भैया को उग आए दाढ़ी
नए साल में
छुक छुक चले हमारी गाड़ी
नए साल में
-शेर जंग गर्ग
(1937)
ऊँट की सवारी है
मेले में आई है
हाथी पे चढ़ना तो
हाथी भी आया
जल्दी करो, जल्दी करो
आज तुम पढ़ाई
मेले से पहले है
थोड़ी चढ़ाई
थोड़ी चढ़ाई
बंदर का नाच
डुग डुग डुग, डुग डुग डुग
भालू का नाच
बड़े बड़े झूले हैं
बड़े बड़े खेल
चलती है एक वहाँ
छोटी सी रेल
सुनो सुनो पड़ती है
सीटी सुनाई।
-प्रयाग शुक्ल
(1940)
अब तो खाओ
ताक धिनाधिन
ताल मिला लो
हँसते जाओ
गोरे-गोरे
थाल-कटोरे
लो चमकाओ।
चकला-बेलन
मिलकर बेले
फूल फुलकिया
अम्मां तेरी
खूब फुलाओ।
भैया आओ
मीठी-मीठी
अम्मां को भी
यहां बुलाओ
प्यारी अम्मां
सबने खाया
अब तो खाओ।
-देवेन्द्र कुमार
(1940)
लाला जी की तोंद
लाला जी बड़ी तोंद है
घंटाघर की घड़ी तोंद है
लाला जी से मिलो बाद में
उनसे पहले खड़ी तोंद है
कुरते में घुसने से पहले
रोज लड़ाई लड़ी तोंद है।
बस में चढ़ते और उतरते
दरवाज़े में अड़ी तोंद है।
किसी अंगूठी में ज्यों हीरा
लाला जी में जड़ी तोंद है।
चूरन के पर्वत के नीचे
लाला जी की बड़ी तोंद है।
-सूर्यभानु गुप्त
(1940)
पेड़
टिंकू से यह बोला पेड़
टिंकू मुझको अधिक न छेड़
शायद तुझ पर काम नहीं
पर मुझको आराम नहीं
देख अभी नभ में जाना है
बादल से पानी लाना है
जीवों को वायु देनी है
मिट्टी को आयु देनी है
ईंधन देना है बुढ़िया को
मीठे फल देना गुड़िया को
अभी बनाना ऐसा डेरा
पक्षी जिसमें करें बसेरा
इंसानों के रोग हरूँगा
और बहुत से काम करूँगा
टिंकू कर मत पीछा मेरा
मैं धरती का पूत कमेरा
-अश्व घोष
(1941)
बजे नगाड़े बरसे मोती
आसमान में बजे नगाड़े
या बुढ़िया
दलती सिंघाड़े!
या फिर
भूरे-काले बादल
बड़े जोर से
पढ़े पहाड़े!
झर-झर बूँदें
बरसे मोती
बुढ़िया अपनी
चकिया धोती
या फिर
कोई छोटी बदली
फज़ा में
पिट कर है रोती!
-पद्मा चौगांवकर
(1942)
चरखा बोले चर्रक चूँ
चरखा बोले चर्रक चूँ
चर्रक चूँ भई चर्रक चूँ

इसे चलाया गांधी ने
धूम मचादी खादी ने
अब न रहे गांधी बाबा
दे कर मन्तर हो गए छू।
सभी दिखाते अपने हाथ
इक दूजे को देते मात
सर सर सर सर सूत कते
तकली नाचे ढुम्मक ढूँ।
सूत बिका बाजार में
बंधे सभी इक तार में
दूर दूर तक जा पहुँचा
बम्बई, सूरत, टिम्बकटू।
-इन्दिरा गौड़
(1943)
हम गुलाब के फूल
बाहर-अंदर, कितने सुंदर
हम गुलाब के फूल!
जब देखो हँसते मुसकाते
आँगन बगिया को महकाते
हँसमुख रहते, कभी न कहते
सहते रहते शूल
हम गुलाब के फूल!
रूप हमारे रंग-बिरंगे
तन से मन से ताजे चंगे
तोड़ा जाए, फेंका जाए
हमको नहीं कबूल
हम गुलाब के फूल!
उपयोगी हैं तरह तरह से,
खुशियों का संदेश सुबह से
लगा लिया करते माथे पर
हम धरती की धूल
हम गुलाब के फूल!
-राजा चौरसिया
(1945)
सूरज सहमा रहता !
काँप रही है थर थर काकी
जैसे हिलें हवा में पत्ते
गर्मी को धकिया जाड़े ने
बंद कर दिया, तुम्हे पता है?
और न जाने कहाँ छुपाकर
चाबी को रख दिया पता है
ढूँढ़ रहे पगलाए सारे
उलट पुलट कर कपड़े-लत्ते!
घर से नहीं निकलने देती
करे ठाठ से धींगा मुश्ती
सूरज भी सहमा रहता है
लड़ता नहीं लपक कर कुश्ती
मेरी रेल ठीक होती तो
इसे छोड़ आता कलकत्ते।
दिन में हवा रात में पाला
कोहरा हटता नहीं हटाए
सारे रस्ते बंद पड़े हैं
गर्मी कहो कहाँ से आए
जला अंगीठी कोशिश करते
जुम्मन काका, चाचा फत्ते।
-कृष्ण शलभ
(1945)

झटपट खाओ
सूरज ने भेजा धरती पर
अपनी बेटी किरण धूप को
साथ खेलते धरती ने भी
उगा दिया झट हरी दूब को
दूब उगी तो देख गाय ने
हिला हिला मुँह उसको खाया
उसको खा कर खूब ढ़ेर सा
दूध थनों में उसके आया
दूध मिला तो दादी माँ ने
जामन दे कर उसे जमाया
दही जमा तो माँ ने उसको
खूब बिलोकर मक्खन पाया
देखा मक्खन तो मन बोला
झटपट भैया इसको खाओ
ताक रहे क्यों खड़े देर से
मत इसको इतना पिघलाओ
पर बोली माँ इसको खा कर
हाथी से तगड़े हो जाओ
मैं बोला माँ लेकिन पहले
सूँड़ कहीं से तो ले आओ।
-दिविक रमेश
१ध्४१९४६१ध्२

टिन्नी जी!
टिन्नी जी! ओ टिन्नी जी
ये लो एक चवन्नी जी
बज्जी से प्यारा-प्यारा
लाना छोटा गुब्बारा
ऊपर उसे उड़ाएँगे
आसमान पहुँचाएँगे !
टिन्नी जी! ओ टिन्नी जी
ये लो एक चवन्नी जी
बज्जी से ताजी-ताजी
लाना पालक की भाजी
घर पर उसे पकाएँगे
साथ बैठ कर खाएँगे !
टिन्नी जी! ओ टिन्नी जी
ये लो एक चवन्नी जी
जल्दी से बज्जी जाना
एक डुगडुगी ले आना
डुगडुग उसे बजाएँगे
मिल कर गाने गाएँगे!
-रमेश तैलंग
१ध्४१९४६१ध्२
पापा, तंग करता है भैया
पापा, तंग करता है भैया
कार तोड़ दी इसने मेरी
फेंक दिए दो पहिए दूर
हार्न टूट कर अलग पड़ा है
बत्ती भी है चकनाचूर
कहता-पापा से मत कहना
ले लो मुझसे एक रुपैया
पापा, तंग करता है भैया ।
लकड़ी का था मेरा हाथी
इसने दोनों कान उखाड़े
हिरन बनाए थे मैंने दो
कापी से वो पन्ने फाड़े
तोड़ फोड़ डाली, पापाजी
मेले से लाई थी गैया
पापा, तंग करता है भैया।
इसने ले ली गुड़िया मेरी
ठुमक-ठुमक जो पीती पानी
एक नहीं, करता रहता है
हर दम ऐसी ही मनमानी
मेरा गुड्डा चुरा लिया है
कहता-ले लो चोर सिपैया
पापा, तंग करता है भैया।
-प्रकाश मनु
(1950)


दादाजी की चोटी
दादा जी की चोटी
कितनी लम्बी-मोटी
यह घुटनों तक जाती है
नागिन सी लहराती है
फिर भी कहती रहती है
मैं हूँ कितनी छोटी !
इसका है तेली से मेल
यह पीती है नौ मन तेल
मगर नहीं बुझती है प्यास
इसकी नीयत खोटी
दादा जी की चोटी !
-शिव गौड़
(1955)
खिचड़ी के यार
चिड़िया ले कर आई चावल
और कबूतर दाल
बंदर मामा बैठे-बैठे
बजा रहे थे गाल
चिड़िया और कबूतर बोले-
मामा, लाओ घी
खिचड़ी में हिस्सा चाहो तो
ढूँढ़ो कहीं दही
पहले से हमने ला रक्खे
पापड़ और अचार
यही चार तो होते हैं जी
इस खिचड़ी के यार।
-उषा यादव
(1948)
बंदर-मस्त कलंदर
बंदर-बंदर
मस्त कलंदर
क्यों बैठे हो
डाली पर ?
'चलो उतरकर
आओ अंदर
काँप रहे हो
तुम थर थर`
बंदर बोला-
अरे मुछंदर
कभी न मैं
आऊँ अंदर
डम-डम-डमडम
डमरू ले कर
मुझे नचाओगे
दिन भर।
-सूर्य कुमार पांडेय
(1956)
एक हवा!
एक हवा थी हल्की-हल्की
एक हवा थी भारी
एक हवा चुपके से आई
एक ने धूल बुहारी
एक हवा थी ठंडी-ठंडी
एक थी गरम भभूका
एक हवा खुशियां ले आई
एक दुखों का झोंका
एक हवा थी खुशबू वाली
आई आ कर चली गई
एक हवा है सच्ची-सादी
सांस सांस में बसी हुई।
-श्याम सुशील
(1957)

बाल कविताएँ

देल छे आए
बाबा आज देल छे आए,
चिज्जी पिज्जी कुछ ना लाए।
बाबा क्यों नहीं चिज्जी लाए,
इतनी देली छे क्यों आए।
कां है मेला बला खिलौना,
कलाकंद, लड्डू का दोना।
चूं चूं गाने वाली चिलिया,
चीं चीं करने वाली गुलिया।
चावल खाने वाली चुहिया,
चुनिया-मुनिया, मुन्ना भइया।
मेला मुन्ना, मेली गैया,
कां मेले मुन्ना की मैया।
बाबा तुम औ कां से आए,
आं आं चिज्जी क्यों ना लाए।
-श्रीधर पाठक
( 1860 )
******



एक बूँद
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़ कर मैं यों कढ़ी
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वो समन्दर ओर आयी अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी
लोग यौं ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर !
-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध`
(1865 - 1947)

******
लड्डू ले लो
ले लो दो आने के चार
लड्डू राज गिरे के यार
यह हैं धरती जैसे गोल
ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल
इनके मीठे स्वादों में ही
बन आता है इनका मोल
दामों का मत करो विचार
ले लो दो आने के चार।
लोगे खूब मज़ा लायेंगे
ना लोगे तो ललचायेंगे
मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
हँसी खुशी से सब खायेंगे
इनमें बाबू जी का प्यार
ले लो दो आने के चार।
कुछ देरी से आया हूँ मैं
माल बना कर लाया हूँ मैं
मौसी की नज़रें इन पर हैं
फूफा पूँछ रहे क्या दर है
जल्द खरीदो लुटा बजार
ले लो दो आने के चार।
-माखनलाल चतुर्वेदी
(1889 - 1968)


*******
तिल्ली सिंह
पहने धोती कुरता झिल्ली
गमछे से लटकाये किल्ली
कस कर अपनी घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह जा पहुँचे दिल्ली
पहले मिले शेख जी चिल्ली
उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली
बिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली
उसने धर दबोच दी बिल्ली
मरी देख कर अपनी बिल्ली
गुस्से से झुँझलाया चिल्ली
लेकर लाठी एक गठिल्ली
उसे मारने दौड़ा चिल्ली
लाठी देख डर गया तिल्ली
तुरत हो गयी धोती ढिल्ली
कस कर झटपट घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह ने छोड़ी दिल्ली
हल्ला हुआ गली दर गल्ली
तिल्ली सिंह ने जीती दिल्ली!
-रामनरेश त्रिपाठी
(1889 - 9162)

******
घूम हाथी, झूम हाथी
घूम हाथी, झूम हाथी, घूम हाथी, झूम हाथी!
हाथी झूम झूम झूम!
हाथी घूम घूम घूम!!
राजा झूमें रानी झूमें, झूमें राजकुमार
घोड़े झूमें फौजें झूमें, झूमें सब दरबार
झूम झूम घूम हाथी, घूम झूम झूम हाथी!
हाथी झूम झूम झूम!
हाथी घूम घूम घूम!!
राज महल में बाँदी झूमे, पनघट पर पनिहारी
पीलवान का अंकुश झूमें सोने की अम्बारी
झूम झूम घूम हाथी, घूम झूम झूम हाथी!
हाथी झूम झूम झूम!
हाथी घूम घूम घूम!!
-विद्याभूषण 'विभु`
(1892 - 1965)



********
एक सवाल
आओ, पूछें एक सवाल
मेरे सिर में कितने बाल ?
कितने आसमान में तारे ?
बतलाओ या कह दो हारे
नदिया क्यों बहती दिन रात ?
चिड़ियाँ क्या करती हैं बात ?
क्यों कुत्ता बिल्ली पर धाए ?
बिल्ली क्यों चूहे को खाए ?
फूल कहाँ से पाते रंग ?
रहते क्यों न जीव सब संग ?
बादल क्यों बरसाते पानी ?
लड़के क्यों करते शैतानी ?
नानी की क्यों सिकुड़ी खाल ?
अजी, न ऐसा करो सवाल
यह सब ईश्वर की है माया
इसको कौन जान है पाया !
-ठाकुर श्रीनाथ सिंह
(1901 - 1996)



******
नटखट हम, हां नटखट हम !
नटखट हम हां नटखट हम,
करने निकले खटपट हम
आ गये लड़के आ गये हम,
बंदर देख लुभा गये हम
बंदर को बिचकावें हम,
बंदर दौड़ा भागे हम
बच गये लड़के बच गये हम,
नटखट हम हां नटखट हम !
बर्र का छत्ता पा गये हम,
बांस उठा कर आ गये हम
छत्ता लगे गिराने हम,
ऊधम लगे मचाने हम
छत्ता टूटा बर्र उड़े,
आ लड़कों पर टूट पड़े
झटपट हट कर छिप गये हम,
बच गये लड़के बच गये हम !
बिच्छू एक पकड़ लाये,
उसे छिपा कर ले आये
सबक जांचने भिड़े गुरू,
हमने नाटक किया शुरू
खोला बिच्छू चुपके से,
बैठे पीछे दुबके से
बच गये गुरु जी खिसके हम,
पिट गये लड़के बच गये हम !
बुढ़िया निकली पहुँचे हम,
लगे चिढ़ाने जम जम जम
बुढ़िया खीझे डरे न हम,
ऊधम करना करें न कम
बुढ़िया आई नाकों दम,
लगी पीटने धम धम धम
जान बचा कर भागे हम,
पिट गये लड़के बच गये हम!
-सभामोहन अवधिया 'स्वर्ण सहोदर`
(1902 - 1980)


********
यह कदम्ब का पेड़ !
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।
-सुभद्रा कुमारी चौहान
(1904 - 1948


*********

कबूतर
भोले-भाले बहुत कबूतर
मैंने पाले बहुत कबूतर
ढंग ढंग के बहुत कबूतर
रंग रंग के बहुत कबूतर
कुछ उजले कुछ लाल कबूतर
चलते छम छम चाल कबूतर
कुछ नीले बैंजनी कबूतर
पहने हैं पैंजनी कबूतर
करते मुझको प्यार कबूतर
करते बड़ा दुलार कबूतर
आ उंगली पर झूम कबूतर
लेते हैं मुंह चूम कबूतर
रखते रेशम बाल कबूतर
चलते रुनझुन चाल कबूतर
गुटर गुटर गूँ बोल कबूतर
देते मिश्री घोल कबूतर।
-सोहन लाल द्विवेदी
(1906 - 1988)



*******
कहां रहेगी चिड़िया ?
आंधी आई जोर शोर से
डाली टूटी है झकोर से
उड़ा घोंसला बेचारी का
किससे अपनी बात कहेगी
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?
घर में पेड़ कहाँ से लाएँ
कैसे यह घोंसला बनाएँ
कैसे फूटे अंडे जोड़ें
किससे यह सब बात कहेगी
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?
-महादेवी वर्मा
(1907 - 1987)



*******
चांद का कुर्ता
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो मा मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!
-रामधारी सिंह 'दिनकर`
(1908 - 1974)



*******
बाबा जी की छींक
घर - भर को चौंकाने वाली
बाबा जी की छींक निराली।।
लगता यहीं कहीं बम फूटा
या कि तोप से गोला छूटा
या छूटी बन्दूक दुनाली
बाबा जी की छींक निराली।।
सोया बच्चा जगा चौंक कर
झबरा कुत्ता भगा भौंक कर
झन्ना उठी कांस की थाली
बाबा जी की छींक निराली।।
दिन में दिल दहलाने वाली
गहरी नींद हटाने वाली
बाबा जी की छींक निराली।।
कभी कभी तो हम डर जाते
भग कर बिस्तर में छिप जाते
हँस कर कभी बजाते ताली
बाबा जी की छींक निराली।।
-रमापति शुक्ल
(1909)




********
निम्मी का परिवार
निम्मी का परिवार निराला
कभी न होता गड़बड़झाला
सबका अपना काम बँटा है
कूड़ करकट अलग छंटा है।
झाड़ू देती गिल्लो मिल्लो
चूल्हा चौका करती बिल्लो
टीपू टामी देते पहरा
नहीं एक भी अंधा बहरा।
चंचल चुहिया चाय बनाती
चिड़िया नल से पानी लाती
निम्मी जब रेडियो बजाती
मैना मीठे बोल सुनाती।

-कन्हैया लाल 'मत्त`
(1911 - -2003)




**********
सैर सपाटा
कलकत्ते से दमदम आए
बाबू जी के हमदम आए
हम वर्षा में झमझम आए
बर्फी, पेड़े, चमचम लाए।
खाते पीते पहुँचे पटना
पूछो मत पटना की घटना
पथ पर गुब्बारे का फटना
तांगे से बेलाग उलटना।
पटना से हम पहुँचे रांची
रांची में मन मीरा नाची
सबने अपनी किस्मत जांची
देश देश की पोथी बांची।
रांची से आए हम टाटा
सौ सौ मन का लो काटा
मिला नहीं जब चावल आटा
भूल गए हम सैर सपाटा !


-आरसी प्रसाद सिंह
(1911 - 1996)

**********


साल शुरू हो, साल खत्म हो !

साल शुरू हो दूध दही से
साल खत्म हो शक्कर घी से
पिपरमैंट, बिस्कुट मिसरी से
रहें लबालव दोनों खीसे
मस्त रहें सड़कों पर खेलें
ऊधम करें मचाएँ हल्ला
रहें सुखी भीतर से जी से।
सांझ, रात, दोपहर, सवेरा
सबमें हो मस्ती का डेरा
कातें सूत बनाएँ कपड़े
दुनिया में क्यों डरें किसी से
पंछी गीत सुनाये हमको
बादल बिजली भाये हमको
करें दोस्ती पेड़ फूल से
लहर लहर से नदी नदी से
आगे पीछे ऊपर नीचे
रहें हंसी की रेखा खींचे
पास पड़ौस गाँव घर बस्ती
प्यार ढेर भर करें सभी से।
-भवानी प्रसाद मिश्र
(1913 - 1985)


***********
बादल आया
बादल आया झूम के,
पर्वत चोटी चूम के।
इन्द्रधनुष का पहने हार,
ले आया वर्षा की धार।
मेंढ़क राजा मगन हुए,
झींगुर के सुख सपन हुए।
कजरी की धुन आती है,
नन्हीं चिड़िया गाती है।

गुड़िया की परेशानी
रोती रोती गुड़िया आई
किससे अपनी बात कहूँ
चूँ चूँ ने आफत कर डाली
ऐसे घर में कहाँ रहूँ?
कुतरी चुनरी गोटे वाली
लाल रंग की प्यारी प्यारी
डाल नहीं घूँघट पाऊँगी
दूल्हे संग कैसे जाऊँगी
मर जाऊँगी लाज की मारी
कैसे अब ससुराल रहूँ?
-शकुंतला सिरोठिया
(1915 - 2005)

*********
बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
साथ में ध्वजा रहे
बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं
दल कभी रुके नहीं।
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर,हटो नहीं
तुम निडर,डटो नहीं
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
-द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी
(1916 - -1998)


******

जादूगर अलबेला
छू काली कलकत्ते वाली
तेरा वचन न जाए खाली
मैं हूँ जादूगर अलबेला
असली भानमती का चेला
सीधा बंगाले से आया
जहाँ जहाँ जादू दिखलाया
सबसे नामवरी है पाई
उंगली दाँतों तले दबाई
जिसने देखा, खेल निराला
जम कर खूब बजाई ताली
चाहूँ तिल का ताड़ बना दूँ
रुपयों का अंबार लगा दूँ
अगर कहो तो आसमान पर
तुमको धरती से पहुंचा दूँ
ऐसे ऐसे मंतर जानूँ
दुख संकंट छू मंतर कर दूँ
बने कबूतर, बकरी काली।
-चन्द्रपाल सिंह यादव 'मयंक`
(1925 - 2000)

*********

पैसा पास होता
पैसा पास होता तो चार चने लाते
चार में से एक चना तोते को खिलाते
तोते को खिलाते, तो टाँव-टाँव गाता,
टाँव-टाँव गाता तो बड़ा मज़ा आता।
पैसा पास होता तो चार चने लाते,
चार में से एक चना घोड़े को खिलाते
घोड़े को खिलाते, तो पीठ पर बिठाता
पीठ पर बिठाता तो बड़ा मज़ा आता।
पैसा पास होता तो चार चने लाते
चार में से एक चना चूहे को खिलाते
चूहे को खिलाते तो दाँत टूट जाता
दाँत टूट जाता तो बड़ा मज़ा आता।
-निरंकार देव 'सेवक`
(1919 - 1994)




********
राजा-रानी
एक था राजा
एक थी रानी
दोनों करते थे
मन मानी
राजा का तो
पेट बड़ा था
रानी का भी
पेट बड़ा था
खूब वे खाते थे
छक छक कर
फिर सो जाते थे
थक थक कर
काम यही था
बक-बक, बक-बक
नौकर से बस
झक-झक, झक-झक।
-जयप्रकाश भारती
(1936 - 2005)





*******
बतूता का जूता
इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता
उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दुकान में।
-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
(1927 - 1983)





**********
बाज़ीगर
बाज़ीगर ने खेल दिखाया
सबका मन बहलाया
डमरू बजा बजाकर उसने
पहले भीड़ जुटाई
गुड्डा कभी दिखाकर गुड़िया
बातें खूब बनाई
करतब दिखलाने से पहले
सबको खूब रिझाया।
रुपया एक लिया हाथों में
फौरन दो कर डाले
दो के चार बनाए उसने
फिर अनगिनत उछाले
रुपये इतने देखे जब, तब
अपना मन ललचाया।
खाली बर्तन लिया हाथ में
उलटा कर दिखलाया
फिर जाने क्या मंतर मारा
जल उसमें छलकाया
छींटे मार भिगोया सबको
ऐसी उसकी माया।
-रमेश कौशिक
(1930)



*********
कोई लाके मुझे दे
कुछ रंग भरे फूल
कुछ खट्टे-मीठे फल
थोड़ी बांसुरी की धुन
थोड़ा जमुना का जल
कोई लाके मुझे दे
एक सोना जड़ा दिन
एक रूपों भरी रात
एक फूलों भरा गीत
एक गीतों भरी बात
कोई लाके मुझे दे
एक छाता छाँव का
एक धूप की घड़ी
एक बादलों का कोट
एक दूब की घड़ी
कोई लाके मुझे दे
एक छुट्टी वाला दिन
एक अच्छी सी किताब
एक मीठा-सा सवाल
एक नन्हा-सा जवाब
कोई लाके मुझे दे
-दामोदर अग्रवाल
(1932)
********

हल्लम हल्लम हाथी
हल्लम हल्लम हौदा हाथी चल्लम चल्लम
हम बैठे हाथी पर,हाथी हल्लम हल्लम
लम्बी लम्बी सूँड़ फटा फट फट्टर फट्टर
लम्बे लम्बे दाँत खटा खट खट्टर खट्टर
भारी भारी सूँड़ मटकता झम्मम झम्मम
पर्वत जैसी थुलथुली थल्लम थल्लम
हल्लर हल्लर देह हिले जब हाथी चल्लम
खम्भे जैसे पांव धमा धम धम्मम धम्मम
हाथी जैसी नहीं सवारी अग्गड़ बग्गड़
पीलवान पुच्छन बैठा है बांधे पग्गड़
बैठे बच्चे पीठ सभी हम डग्गम डग्गम
-डॉ. श्री प्रसाद
(1932)




*********
कंतक थैया,घुनू मनइयाँ
कंतक थैया, घुनूँ मनइयाँ
चंदा भागे पइयाँ पइयाँ
यह चंदा हलवाह है
नीले नीले खेत में
बिल्कुल सैत मेत में
रत्नों भरे खेत में
किधर भागता लइयाँ पइयाँ
अंधकार है घेरता
टेढ़ी आँखें हेरता
चांद नहीं मुँह फेरता
राकेट को है टेरता
मुन्नू को लूँगा मैं दइयाँ
मिट्टी के बादलों के राजा
ताली तेरी बुढ़िया बाजा
छोटा छोटा छोकरा
सिर पर रक्खे टोकरा
बने डोकरा करुँ बलइयाँ
कंतक थैया घुनूँ मनइयाँ
-श्रीकृष्ण चंद्र तिवारी 'राष्ट्रबंधु`
(1933)


********
सच्चा दानी
पेड़ किसी से नहीं पूछता
कहो, कहाँ से आए ?
वह तो बस कर देता छाया
चाहे जो सुस्ताए!
खिलते समय न फूल सोचता
कौन उसे पाएगा?
उसकी खुशबू अपनी सांसों में
भर इतराएगा!
बादल से जब सहा न जाता
अपने जल का संचय
बस, वह बरस-बरस भर देता
नदियाँ, नहर, जलाशय!
जो स्वभाव से ही दाता है
उन्हें न कोई भ्रम है
भेदभाव करते हैं वे ही
जिनकी पूजा कम है।
-बालस्वरुप राही
(1936)


*****
धूप खिली है!
मम्मी देखो सूरज निकला
कई दिनों में धूप खिली है
घुमड़-घुमड़ कर काले बादल
बारिश कर जाते थे झर-झर
हम कोनों में छिप जाते थे
आंधी बिजली से डर-डर कर
जाने कैसे आज अचानक
थोड़ी राहत हमें मिली है।
इक्का दुक्का बादल अब भी
घूम रहे हैं आसमान में
कभी अचानक मिल जाते हैं
बातें करते कान-कान में
सैर सपाटा करने को फिर
चिड़ियों की टोली निकली है।
मम्मी, पापा जी से कह दो
संभल-संभल कर जाएं दफ्तर
कपड़े गंदे हो सकते हैं
छींटे आ जाते हैं उड़कर
नीली पैंट न हरगिज़ पहनें
कुछ दिन पहले नई सिली है।
ऱ्योगेन्द्र कुमार लल्ला
(1937)



********
नए साल में

ताजे सुंदर फूल खिलेंगे
नए साल में
नए-पुराने मित्र मिलेंगे
नए साल में
भैया-दीदी खूब पढ़ेंगे
कोई कितनी करे शरारत
नहीं लड़ेंगे
नए साल में
रंग खुशी का चोखा होगा
नए साल में
हर त्यौहार अनोखा होगा
स्वस्थ रहेंगी प्यारी दादी
नए साल में
गुड़िया की भी होगी शादी
नए साल में
अच्छे अच्छे काम करेंगे
नए साल में
सीधे सच्चे नहीं डरेंगे
नए साल में
भैया को उग आए दाढ़ी
नए साल में
छुक छुक चले हमारी गाड़ी
नए साल में
-शेर जंग गर्ग
(1937)



*******
ऊँट की सवारी है
मेले में आई है
हाथी पे चढ़ना तो
हाथी भी आया
जल्दी करो, जल्दी करो
आज तुम पढ़ाई
मेले से पहले है
थोड़ी चढ़ाई
थोड़ी चढ़ाई
बंदर का नाच
डुग डुग डुग, डुग डुग डुग
भालू का नाच
बड़े बड़े झूले हैं
बड़े बड़े खेल
चलती है एक वहाँ
छोटी सी रेल
सुनो सुनो पड़ती है
सीटी सुनाई।
-प्रयाग शुक्ल
(1940)




*******
अब तो खाओ
ताक धिनाधिन
ताल मिला लो
हँसते जाओ
गोरे-गोरे
थाल-कटोरे
लो चमकाओ।
चकला-बेलन
मिलकर बेले
फूल फुलकिया
अम्मां तेरी
खूब फुलाओ।
भैया आओ
मीठी-मीठी
अम्मां को भी
यहां बुलाओ
प्यारी अम्मां
सबने खाया
अब तो खाओ।
-देवेन्द्र कुमार
(1940)





*******
लाला जी की तोंद
लाला जी बड़ी तोंद है
घंटाघर की घड़ी तोंद है
लाला जी से मिलो बाद में
उनसे पहले खड़ी तोंद है
कुरते में घुसने से पहले
रोज लड़ाई लड़ी तोंद है।
बस में चढ़ते और उतरते
दरवाज़े में अड़ी तोंद है।
किसी अंगूठी में ज्यों हीरा
लाला जी में जड़ी तोंद है।
चूरन के पर्वत के नीचे
लाला जी की बड़ी तोंद है।
-सूर्यभानु गुप्त
(1940)




*******
पेड़
टिंकू से यह बोला पेड़
टिंकू मुझको अधिक न छेड़
शायद तुझ पर काम नहीं
पर मुझको आराम नहीं
देख अभी नभ में जाना है
बादल से पानी लाना है
जीवों को वायु देनी है
मिट्टी को आयु देनी है
ईंधन देना है बुढ़िया को
मीठे फल देना गुड़िया को
अभी बनाना ऐसा डेरा
पक्षी जिसमें करें बसेरा
इंसानों के रोग हरूँगा
और बहुत से काम करूँगा
टिंकू कर मत पीछा मेरा
मैं धरती का पूत कमेरा
-अश्वघोष
(1941)



*******
बजे नगाड़े बरसे मोती
आसमान में बजे नगाड़े
या बुढ़िया
दलती सिंघाड़े!
या फिर
भूरे-काले बादल
बड़े जोर से
पढ़े पहाड़े!
झर-झर बूँदें
बरसे मोती
बुढ़िया अपनी
चकिया धोती
या फिर
कोई छोटी बदली
फज़ा में
पिट कर है रोती!
-पद्मा चौगांवकर
(1942)




*******
चरखा बोले चर्रक चूँ
चरखा बोले चर्रक चूँ
चर्रक चूँ भई चर्रक चूँ

इसे चलाया गांधी ने
धूम मचादी खादी ने
अब न रहे गांधी बाबा
दे कर मन्तर हो गए छू।
सभी दिखाते अपने हाथ
इक दूजे को देते मात
सर सर सर सर सूत कते
तकली नाचे ढुम्मक ढूँ।
सूत बिका बाजार में
बंधे सभी इक तार में
दूर दूर तक जा पहुँचा
बम्बई, सूरत, टिम्बकटू।
-इन्दिरा गौड़
(1943)




******
हम गुलाब के फूल
बाहर-अंदर, कितने सुंदर
हम गुलाब के फूल!
जब देखो हँसते मुसकाते
आँगन बगिया को महकाते
हँसमुख रहते, कभी न कहते
सहते रहते शूल
हम गुलाब के फूल!
रूप हमारे रंग-बिरंगे
तन से मन से ताजे चंगे
तोड़ा जाए, फेंका जाए
हमको नहीं कबूल
हम गुलाब के फूल!
उपयोगी हैं तरह तरह से,
खुशियों का संदेश सुबह से
लगा लिया करते माथे पर
हम धरती की धूल
हम गुलाब के फूल!
-राजा चौरसिया
(1945)





******
सूरज सहमा रहता !
काँप रही है थर थर काकी
जैसे हिलें हवा में पत्ते
गर्मी को धकिया जाड़े ने
बंद कर दिया, तुम्हे पता है?
और न जाने कहाँ छुपाकर
चाबी को रख दिया पता है
ढूँढ़ रहे पगलाए सारे
उलट पुलट कर कपड़े-लत्ते!
घर से नहीं निकलने देती
करे ठाठ से धींगा मुश्ती
सूरज भी सहमा रहता है
लड़ता नहीं लपक कर कुश्ती
मेरी रेल ठीक होती तो
इसे छोड़ आता कलकत्ते।
दिन में हवा रात में पाला
कोहरा हटता नहीं हटाए
सारे रस्ते बंद पड़े हैं
गर्मी कहो कहाँ से आए
जला अंगीठी कोशिश करते
जुम्मन काका, चाचा फत्ते।
-कृष्ण शलभ
(1945)


********

झटपट खाओ
सूरज ने भेजा धरती पर
अपनी बेटी किरण धूप को
साथ खेलते धरती ने भी
उगा दिया झट हरी दूब को
दूब उगी तो देख गाय ने
हिला हिला मुँह उसको खाया
उसको खा कर खूब ढ़ेर सा
दूध थनों में उसके आया
दूध मिला तो दादी माँ ने
जामन दे कर उसे जमाया
दही जमा तो माँ ने उसको
खूब बिलोकर मक्खन पाया
देखा मक्खन तो मन बोला
झटपट भैया इसको खाओ
ताक रहे क्यों खड़े देर से
मत इसको इतना पिघलाओ
पर बोली माँ इसको खा कर
हाथी से तगड़े हो जाओ
मैं बोला माँ लेकिन पहले
सूँड़ कहीं से तो ले आओ।
-दिविक रमेश
(1946)

*********

टिन्नी जी!
टिन्नी जी! ओ टिन्नी जी
ये लो एक चवन्नी जी
बज्जी से प्यारा-प्यारा
लाना छोटा गुब्बारा
ऊपर उसे उड़ाएँगे
आसमान पहुँचाएँगे !
टिन्नी जी! ओ टिन्नी जी
ये लो एक चवन्नी जी
बज्जी से ताजी-ताजी
लाना पालक की भाजी
घर पर उसे पकाएँगे
साथ बैठ कर खाएँगे !
टिन्नी जी! ओ टिन्नी जी
ये लो एक चवन्नी जी
जल्दी से बज्जी जाना
एक डुगडुगी ले आना
डुगडुग उसे बजाएँगे
मिल कर गाने गाएँगे!
-रमेश तैलंग
(1946)


******

पापा, तंग करता है भैया
पापा, तंग करता है भैया
कार तोड़ दी इसने मेरी
फेंक दिए दो पहिए दूर
हार्न टूट कर अलग पड़ा है
बत्ती भी है चकनाचूर
कहता-पापा से मत कहना
ले लो मुझसे एक रुपैया
पापा, तंग करता है भैया ।
लकड़ी का था मेरा हाथी
इसने दोनों कान उखाड़े
हिरन बनाए थे मैंने दो
कापी से वो पन्ने फाड़े
तोड़ फोड़ डाली, पापाजी
मेले से लाई थी गैया
पापा, तंग करता है भैया।
इसने ले ली गुड़िया मेरी
ठुमक-ठुमक जो पीती पानी
एक नहीं, करता रहता है
हर दम ऐसी ही मनमानी
मेरा गुड्डा चुरा लिया है
कहता-ले लो चोर सिपैया
पापा, तंग करता है भैया।
-प्रकाश मनु
(1950)

********
दादाजी की चोटी
दादा जी की चोटी
कितनी लम्बी-मोटी
यह घुटनों तक जाती है
नागिन सी लहराती है
फिर भी कहती रहती है
मैं हूँ कितनी छोटी !
इसका है तेली से मेल
यह पीती है नौ मन तेल
मगर नहीं बुझती है प्यास
इसकी नीयत खोटी
दादा जी की चोटी !
-शिव गौड़
(1955)



*******
खिचड़ी के यार
चिड़िया ले कर आई चावल
और कबूतर दाल
बंदर मामा बैठे-बैठे
बजा रहे थे गाल
चिड़िया और कबूतर बोले-
मामा, लाओ घी
खिचड़ी में हिस्सा चाहो तो
ढूँढ़ो कहीं दही
पहले से हमने ला रक्खे
पापड़ और अचार
यही चार तो होते हैं जी
इस खिचड़ी के यार।
-उषा यादव
(1948)


*******
बंदर-मस्त कलंदर
बंदर-बंदर
मस्त कलंदर
क्यों बैठे हो
डाली पर ?
'चलो उतरकर
आओ अंदर
काँप रहे हो
तुम थर थर`
बंदर बोला-
अरे मुछंदर
कभी न मैं
आऊँ अंदर
डम-डम-डमडम
डमरू ले कर
मुझे नचाओगे
दिन भर।
-सूर्य कुमार पांडेय
(1956)



******
एक हवा!
एक हवा थी हल्की-हल्की
एक हवा थी भारी
एक हवा चुपके से आई
एक ने धूल बुहारी
एक हवा थी ठंडी-ठंडी
एक थी गरम भभूका
एक हवा खुशियां ले आई
एक दुखों का झोंका
एक हवा थी खुशबू वाली
आई आ कर चली गई
एक हवा है सच्ची-सादी
सांस सांस में बसी हुई।
-श्याम सुशील
(1957)



*******

29 January, 2006

दिल्ली में प्रवासी हिन्दी उत्सव की धूम


चतुर्थ प्रवासी हिन्दी उत्सव : एक रिपोर्ट

दिल्ली में प्रवासी हिन्दी उत्सव की धूम

'प्रवासी पराया नहीं है, निवेशक मात्र नहीं है बल्कि प्रियवासी है` भारत से बाहर विदेशों में बसे हिन्दी साहित्यकारों, विद्वानों का तीन दिवसीय 'चतुर्थ प्रवासी हिन्दी उत्सव` इस कथन को रेखांकित करते हुए सम्पन्न हुआ। यह त्रिदिवसीय उत्सव २०-२१-२२ जनवरी, २००६ के दौरान दिल्ली में आयोजित किया गया।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के महानिदेशक श्री पवन वर्मा साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा. गोपीचंद नारंग और अक्षरम् के मुख्य संरक्षक डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के मार्गदर्शन में आयोजित इस कार्यक्रम में भारतीय सांस्कृतिक संबंध् परिषद् की उपमहानिदेशक श्रीमती मोनिका मोहता, भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी श्री मधुप मोहता तथा साहित्य अकादमी की ओर से सचिव श्री के. सचिदानंदन की भागीदारी रही। भारतीय सांस्कृतिक संबंध् परिषद् की ओर से गगनांचल के संपादक श्री अजय गुप्ता तथा साहित्य अकादमी की ओर से उपसचिव श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने समन्वय किया। हिन्दी भवन और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने भी अपना भवन प्रदान कर कार्यक्रम में सहयोग किया। तीन दिन के इस उत्सव का संयोजन अक्षरम् के अनिल जोशी ने किया। नरेश शांडिल्य और राजेश जैन चेतन ने दिन-रात परिश्रम कर कार्यक्रम के संयोजन में महत्वपूर्ण सहयोग दिया।
'डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी अन्तरराष्ट्रीय कविता सम्मान`भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, साहित्य अकादमी और अक्षरम् के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित चतुर्थ प्रवासी हिन्दी उत्सव के प्रारंभ में ही जब २० जनवरी को दिल्ली में अणुव्रत भवन में 'डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी कविता सम्मान` श्रीमती शैल अग्रवाल बर्मिंघम, यू.के. को उनके काव्य संग्रह 'समिधा` के लिए प्रदान किया गया तो उस समारोह में वक्ताओं ने प्रवासी शब्द की संकल्पना को व्यापक एवं मार्मिक बनाए जाने पर बल दिया। इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि, 'हिन्दी जगत` नामक पत्रिका के प्रबंध संपादक डा. सुरेश रितुपर्ण ने विदेशों में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य के बिना हिन्दी साहित्य के इतिहास को अधूरा बताया, वहीं दूसरी ओर कार्यक्रम के मुख्य अतिथि और ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त रहे, प्रख्यात मनीषी डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ने कहा कि ''भारत का भूमंडलीकरण तो हो ही रहा है, आज जरूरत इस बात की है कि भूमंडल का भारतीयकरण हो।`` डा. पद्मेश गुप्त ने डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी अन्तरराष्ट्रीय कविता सम्मान की विस्तृत जानकारी दी। कार्यक्रम में नाटिंघम से पधारी कवयित्री जय वर्मा ने भी अपने विचार व्यक्त किए। हिन्दी भवन के डा. गोविन्द व्यास ने प्रवासी शब्द के स्थान पर भारतवंशी शब्द के प्रयोग का सुझाव दिया, वहीं धन्यवाद ज्ञापित करने आये अक्षरम् के संरक्षक प्रसिद्ध कवि डा. अशोक चक्रधर ने 'प्रवासी` शब्द में ही आत्मीयता और रस भरने का आह्वान किया। 'समिधा` काव्य संग्रह की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए अक्षरम् संगोष्ठी के संपादक नरेश शांडिल्य ने एक विस्तृत आलेख पढ़ा। कार्यक्रम का संचालन अक्षरम् के अध्यक्ष राजेश चेतन ने किया।
प्रवासी नाटक 'कैमलूप्स की मछलियां` का मंचन२० जनवरी को ही रात्रि में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अभिमंच प्रेक्षागृह में लेखक आत्मजीत द्वारा लिखित मुश्ताक काक द्वारा निर्देशित प्रवासी नाटक 'कैमलूप्स की मछलियां` का मंचन श्रीराम रंगमंडल के कलाकारों ने किया। उत्तरी अमेरिका के टोरंटों में बसे पंजाबी मध्यमवर्गीय परिवारों के सामाजिक, सांस्कृतिक आर्थिक असमंजस को चिन्हित करता हुआ यह नाटक प्रवासी जीवन की विडंबनाओं का जीवंत चित्र प्रतीत हुआ। 'कनाडा में कैमलूप्स नामक नदी की मछलियां जहां जन्म लेती हैं, वहां ही मरती हैं` नाटक के उत्कर्ष पर यह वाक्य प्रवासी हृदय की पीड़ा के उन्मान की सशक्त अभिव्यक्ति था। नाटक देखने भारी संख्या में दर्शक आए। यह नाटक भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् के सौजन्य से किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता डा. मधुप मोहता; संपादक : गगनांचल ने की। विदेश मंत्रालय के सचिव समन्वय विजय कुमार मुख्य अतिथि थे। इस कार्यक्रम का संयोजन अक्षरम् के महासचिव नरेश शांडिल्य ने किया।
अकादमिक सत्रों का उद्घाटन२१ जनवरी प्रात:काल उत्सव का औपचारिक उद्घाटन हुआ। कार्यक्रम के प्रारंभ में बृजेन्द्र त्रिपाठी ने साहित्य अकादमी के सचिव के. सच्चिदानन्दन का 'स्वागत-भाषण` पढ़कर सुनाया। अस्वस्थता के कारण वे कार्यक्रम में नहीं आ सके थे। अपने स्वागत भाषण में साहित्य अकादमी के सचिव श्री सचिदानंद ने कहा कि वे हाल के प्रवासी अनुभव के स्थायी मूल्यों से परिचित हैं। यह संघर्षशील प्रेरणा बहुल अस्मिताओं, नई वस्तुनिष्ठताओं, सृजनात्मक स्मृतियों और भाषा तथा जीवन के नये परिप्रेक्ष्य का स्रोत है। दूसरे देश में हिन्दी में लेखन अपने आप में महत्वपूर्ण चयन है। यह एक साथ स्मृति और प्रतिरोध् दोनों हैं। ऐसे लेखकों ने हिन्दी साहित्य और भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। क्योंकि वे अपने साथ विविध पृष्ठभूमि और अनुभव हिन्दी में लाये हैं। बीज वक्तव्य देते हुए जर्मनी से आये डा. इन्दुप्रकाश पाण्डेय ने विश्व में हिन्दी विषय पर प्रकाश डाला, डा. पांडेय के वक्तव्य में भावुकता एवं चिंता का सम्मिश्रण था। इस अवसर पर वर्षों तक विदेशों में हिन्दी के प्राध्यापक रहे डा. प्रेम जनमेजय ने प्रवासी के दर्द की व्याख्या करते हुए इसे सोने की लंका में रहने वाले विभीषण के दर्द की तरह बताया। अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रख्यात साहित्यकार डा. रामदरश मिश्र ने कहा कि ''प्रवासी साहित्य ने हिन्दी को नई जमीन दी है और हमारे साहित्य का दायरा दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की तरह विस्तृत किया है।`` उन्होंने कहा, ''इस उत्सव का लाभ तात्कालिक हो न हो, कालांतर में इसका प्रतिफल गहरा होगा।`` प्रेस सूचना ब्यूरो के निदेशक डा. अक्षय कुमार ने प्रवासी श्रेणी के सरकारी पारिभाषिक अर्थ को स्पष्ट किया। संचालन करते हुए साहित्य अकादमी के उपसचिव बृजेन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि साहित्य और संस्कृति के माध्यम से प्रवासी भारतीय के दिलों को जोड़ा जा सकता है। इस आपसी संवाद की प्रक्रिया को और गति देनी होगी। उन्होंने कहा कि प्रवासी हिन्दी लेखन को हिन्दी साहित्य के वृहतर साहित्य के इतिहास में समाहित किये जाने की जरूरत है। उन्होंने सुझाव दिया कि भारतीय पत्रा-पत्रिकाओं में प्रवासी साहित्य का एक कॉलम निर्धारित होना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि प्रवासी हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा जाये और इसका एक परिचय कोश हो।

प्रवासी रचनाकारों पर परिचर्चाअकादमिक सत्रों की शृंखला में पहला सत्र प्रवासी रचनाकारों पर परिचर्चा का रहा। डा. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, पूर्व प्राध्यापक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय यू.के. और कोलंबिया विश्वविद्यालय ; यू.एस.ए में प्राध्यापक डा. सुषम बेदी के साहित्यिक अवदान पर चर्चा हुई। डा. राहुल, ऊषा महाजन, मीरा सीकरी और रोहिणी अग्रवाल ने इन दोनों प्रख्यात प्रवासी रचनाकारों के साहित्य के विविध पहलुओं को चिन्हित किया। अध्यक्षता करते हुए डा. महीप सिंह ने प्रवासियों में भारतीय साहित्य को पढ़े जाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि नास्ट्रेलिया कोई बुरी चीज नहीं है। इस सत्र में संवादी के रूप में ब्रिटेन में भारतीय उच्चायोग में हिन्दी एवं संस्कृति अधिकारी रहे अनिल जोशी ने दोनों रचनाकारों के साहित्य की संवेदनशीलता को मुखरित किया। संचालन कवयित्री-कथाकार अलका सिन्हा ने किया।

प्रवासी हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियां'प्रवासी हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियां` विषयक सत्रा में लंदन से आई उषा राजे सक्सेना ने यूरोप और अमेरिका के हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला। डा. सुषम बेदी ने प्रवासी साहित्य के पर्याप्त समालोचन की आवश्यकता पर बल दिया। अमेरिका से आये वेद प्रकाश बटुक ने कहा, ''यदि विश्व को बचाना है तो साहित्यकारों को छोटे-छोटे दायरों से बाहर निकलना होगा।`` गीतांजलि बहुभाषी समुदाय यू.के. के अध्यक्ष डा. कृष्ण कुमार ने प्रवासी साहित्य को मुख्यधारा में लाने का आग्रह किया। मॉरीशस के रामदेव धुरंधर ने वहां के साहित्य का विविध आयामी वर्णन किया। आस्ट्रेलिया की शैल चतुर्वेदी ने प्रवासी हिन्दी साहित्य के ठोस स्वरूप के आगमन का आह्उाान किया। साहित्यकार डॉ० कमलकिशोर गोयनका ने प्रवासी साहित्य के ऐतिहासिक, शोधपरक परिप्रेक्ष्य को उजागर किया। अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध रचनाकार हिमांशु जोशी ने कहा, ''हिन्दी जगत का सूर्य अब नहीं डूबता, हिन्दी वैश्विक हो गई है।`` इस सत्र के संचालक डा. हरीश नवल थे।
प्रवासी रचनाकारों की रचनाओं का नाट्यपाठइसी दिन सांध्यबेला में प्रवासी रचनाकारों की रचनाओं का नाट्यपाठ हुआ। आकाशवाणी के उपनिदेशक लक्ष्मीशंकर वाजपेयी के संयोजन में हुए नाट्यपाठ सत्र की संचालिका कवयित्री रितु गोयल रहीं। इस सत्र में मुख्य अतिथि भारत में सूरीनाम के राजदूत महामहिम कृष्णदत्त बैजनाथ एवं विशिष्ठ अतिथि श्री नारायण कुमार थे। अध्यक्षता गगनांचल पत्रिका के कार्यकारी संपादक अजय कुमार गुप्ता ने की। इस सत्र में प्रवासी रचनाकारों डा. सुषम बेदी, उषा राजे सक्सेना, शैल अग्रवाल, डा. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, डा. इन्दुप्रकाश पांडेय, डा. कृष्ण कुमार, वेद प्रकाश बटुक और सुधा ढींगरा की रचनाओं का दूरदर्शन एवं आकाशवाणी के कलाकारों अलका सिन्हा, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, नमिता राकेश, राजश्री त्रिवेदी एवं आशा त्रिवेदी ने नाट्य पाठ किया।
विदेशों में हिन्दी मीडिया
उत्सव के तीसरे दिन सबेरे प्रथम सत्र में विषय था 'विदेशों में हिन्दी मीडिया`। लंदन से आये प्रवासी टाइम्स एवं पुरवाई के संपादक डा. पद्मेश गुप्त ने इस सत्र में हिन्दी अन्तरराष्ट्रीय अखबार और प्रवासी चैनल की आवश्यकता प्रतिपादित की। प्रसि१ध्४ मीडियाकर्मी यशवंत देशमुख ने हिन्दी को भारत के परिप्रेक्ष्य से आगे बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका डा. स्मिता मिश्र ने हिन्दी फिल्मों के द्वारा वैश्विक हिन्दी प्रसार की चर्चा की। यू.के. मीडियाकर्मी रामभट्ट ने हिन्दी की विदेशों के स्थानीय मसलों तक पहुंच बनाने का सुझाव दिया। प्रसिद्ध शायर व मीडियाकर्मी मुनव्वर राणा ने हिन्दी के साथ मन, वचन और कर्म से जुड़ने की जरूरत बताई। मीडिया प्राध्यापक चैतन्य प्रकाश ने विदेशों में हिन्दी मीडिया के वैशिष्ट्य के लिए उसके प्रसार के साथ-साथ विषय-वस्तु की गुणवत्ता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। संचालन करते हुए डा. जवाहर कर्नावट ने विदेशों में हिन्दी मीडिया के इतिहास को उजागर किया। अध्यक्षीय भाषण में आकाशवाणी के निदेशक सुभाष सेतिया ने हिन्दी को विषय के तौर पर नहीं बल्कि भाषा के रूप में ही प्रसारित किये जाने पर बल दिया।
विदेश में हिन्दी शिक्षण तथा अनुवाद'विदेश में हिन्दी शिक्षण तथा अनुवाद` सत्र में प्राध्यापक डा. प्रेम जनमेजय ने शिक्षण की सुगम, मैत्रीपूर्ण, आधुनिक प्रणाली के प्रयोग का सुझाव दिया। सोपिफया विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक डा. देवेन्द्र शुक्ल ने भारतीय विद्या को विद्यारत्न में परिणत किये जाने पर बल दिया। इस सत्र में अनिल जोशी ने कहा कि अगली पीढ़ी तक यह भाषा कैसे पहुँचे, इस पर विचार आवश्यक है। उन्होंने पाठ्यक्रम की संरचना एवं सृजन के प्रयासों की आवश्यकता चिन्हित की। डा. कुसुम अग्रवाल ने हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय यात्राा और उसमें अनुवाद की भूमिका पर आलेख पढ़ा। प्रो. वी. जगन्नाथन ने अध्यक्षता करते हुए कहा कि हिन्दी को शृंखला की पहली कड़ी होना चाहिए तथा अन्य क्षेत्राीय भाषाओं को दूसरी तथा तीसरी। उन्होंने हिन्दी भाषा के बचपन से प्रयोग एवं मौलिक अधिकारों में राष्ट्रभाषा सिखाने के अधिकार की मांग करने का आह्वान किया। इस सत्र का संयोजन व संचालन डा. राजेश कुमार ने किया।
विदेश में कंप्यूटर व हिन्दी प्रौद्योगिकी'विदेश में कंप्यूटर व हिन्दी प्रौद्योगिकी` सत्र की अध्यक्षता भाषा विज्ञानी डा. सूरजभान सिंह ने की। सत्र आरंभ करते हुए श्री विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा कि हिन्दी के विद्वान अपने लेखन के लिए कंप्यूटर का उपयोग करते भी हैं, तो वे भी कंप्यूटर को मात्र टाइपराइटर की तरह ही इस्तेमाल करते हैं। स्पेल चैकर, आटो करेक्ट और सार्टिंग जैसे सामान्य फीचरों तक का उपयोग नहीं किया जाता। इस संदर्भ में सबसे पहले क्रांतिकारी परिवर्तन तो यही है कि आज विश्व की सभी लिखित भाषाओं के लिए युनिकोड नामक समान विश्वव्यापी कोड को लगभग सभी कंप्यूटर कंपनियों ने अपना लिया है। यह कोडिंग सिस्टम फान्ट्स मुक्त और प्लेटफार्म मुक्त है। विंडोज २००० या उससे ऊपर के सभी सिस्टम युनिकोड को सपोर्ट करते हैं। इसी युनिकोड के कारण ब्लागर आदि का निर्माण भी हिन्दी में सरलता से किया जा सकता है।
आरंभिक वक्ता के रूप में डा. अशोक चक्रधर ने अपनी रोचक शैली में बारह खड़ी के माध्यम से 'बोड़म जी` नामक पात्र के जरिए आफिस हिन्दी-२००३ के नवीनतम और अधनातन लक्षणों को समझाने का प्रयास किया। इसके बाद शारजाह से पधारीं श्रीमती पूर्णिमा वर्मन ने हिन्दी गद्य और पद्य साहित्य की अपनी लोकप्रिय वेबपत्रिकाओं www.anubhuti-hindi.org और www.abhivyakti-hindi.org का संक्षिप्त परिचय देते हुए श्रोताओं को हिन्दी में नि:शुल्क वेबसाइट निर्माण की विधि से परिचित कराया। अंत में प्रो. सूरजभान सिंह जिन्होंने सीडैक में सलाहकार के रूप में कार्य करते हुए राजभाषा विभाग के सहयोग से लीला-हिन्दी नाम से स्वयं हिन्दी शिक्षक और मंत्र नाम से अंग्रेजी-हिन्दी मशीनी अनुवाद के पैकेज विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है, ने अपना अध्यक्षीय वक्तव्य दिया। प्रो. सिंह ने अपने वक्तव्य में इन पैकेजों के बारे में विस्तार से बताते हुए यह स्पष्ट किया कि भाषिक विश्लेषण के बिना कोई भी कंप्यूटर वैज्ञानिक इस प्रकार के पैकेजों का निर्माण नहीं कर सकता।
सभी अकादमिक सत्रों का आयोजन साहित्य अकादमी के रवीन्द्र भवन सभागार में किया गया था।
सम्मान अर्पण समारोह व चतुर्थ प्रवासी भारतीय कवि सम्मेलन
२२ जनवरी, २००६, हिन्दी भवन सभागार
हिन्दी के वैश्विक विमर्श के लिए आयोजित प्रवासी भारतीय उत्सव का समापन कार्यक्रम गौरव, गरिमा और भव्यता लिए हुए था। राजधानी दिल्ली के आई.टी.ओ. स्थित हिन्दी भवन में शरद ऋतु की वह शाम इतिहास लिखने के लिए तत्पर थी। इस अपूर्व संगम का उत्कर्ष भावनात्मक उन्मानों का दस्तावेज बन गया। समापन कार्यक्रम में पहले सम्मान अर्पण हुआ और फिर प्रवासी संवेदना से एकात्मकता के मानसरोवर में हिलोरे लेने वाली भावपूर्ण कविताओं के रसास्वादन कराने वाला अनूठा चतुर्थ प्रवासी भारतीय कवि सम्मेलन सम्पन्न हुआ।
सम्मान अर्पण समारोहसम्मान अर्पण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की उपमहानिदेशक श्रीमती मोनिका मोहता ने इस आयोजन को अपूर्व बताते हुए अपनी शुभकामनाएं दी। इस कार्यक्रम में प्रख्यात मनीषी एवं ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त रहे डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी अध्यक्ष के नाते उपस्थित रहे। इस समारोह में विभिन्न क्षेत्रों में प्रवासी एवं निवासी भारतीयों का सम्मान किया गया। 'अक्षरम् साहित्य सम्मान` अमेरिका में रहने वाली प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री डा. सुषम बेदी को दिया गया। यही सम्मान प्रख्यात साहित्यकार डा. हिमांशु जोशी को देश में उनकी साहित्य साधना के लिए दिया गया।
इसी तरह 'अक्षरम् हिन्दी सेवा सम्मान` डा. कृष्ण कुमार ब्रिटेन को दिया गया तथा देश में यही सम्मान ओम विकास को प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हिन्दी को स्थापित करने के लिए प्रदान किया गया। मीडिया के क्षेत्र में 'अक्षरम् प्रवासी मीडिया सम्मान` पूर्णिमा वर्मन दुबई, रामभट्ट यू.के. एवं सुधा ढींगरा यू.एस.ए. को दिया गया। 'अक्षरम् विशिष्ट सम्मान` डा. शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव को विश्व हिन्दी दिवस की संकल्पना प्रस्तुत करने के लिए तथा 'अक्षरम् विशिष्ट सहयोग सम्मान` केशव कौशिक को दिया गया। इस अवसर पर 'अक्षरम् संगोष्ठी` पत्रिका के प्रवासी विशेषांक का तथा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् की पत्रिका 'गगनांचल` का लोकार्पण भी किया गया।
चतुर्थ प्रवासी भारतीय कवि सम्मेलन
चतुर्थ प्रवासी भारतीय कवि सम्मेलन की अध्यक्षता देश-विदेश के प्रख्यात कवि डा. अशोक चक्रधर ने की। इस कवि सम्मेलन में प्रसिद्ध गीतकार डा. कुंवर बेचैन, गजलकार श्री बालस्वरूप राही एवं प्रसिद्ध कवि गोविन्द व्यास ने अपनी रचनाओं का पाठ कर खूब प्रशंसा प्राप्त की। विदेश से आमंत्रित कवियों में डा. सुषम बेदी यू.एस.ए. डा. पद्मेश गुप्त यू.के., वेद प्रकाश बटुक यू.एस.ए., ऊषा राजे सक्सेना यू.के., शैल अग्रवाल यू.के., डा. सुधा ढींगरा यू.एस.ए., पूर्णिमा वर्मन दुबई, डा. कृष्ण कुमार यू.के, नरेन्द्र ग्रोवर यू.के., शैल चतुर्वेदी यू.के. एवं रामभट्ट यू.के. ने अपने काव्यपाठ से उपस्थित श्रोताओं को मुग्ध कर दिया।
प्रसिद्ध गजलकार मुनव्वर राना ने अपनी मर्मस्पर्शी गजलों की प्रस्तुति से सभी को भावविभोर कर दिया। बृजेन्द्र त्रिपाठी, अनिल जोशी, गजेन्द्र सोलंकी, नरेश शांडिल्य, राजेश 'चेतन`, हरेन्द्र प्रताप, कमलेश रानी अग्रवाल जैसे देश के नामी कवियों ने इस कवि सम्मेलन में अपनी संवेदनशील कविताओं, दोहों, गीतों और गजलों से श्रोताओं को भावनात्मक ऊर्जा से भर दिया। कवि सम्मेलन का कुशल संचालन आकाशवाणी के उपनिदेशक लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने किया। कार्यक्रम में भारी संख्या में गणमान्य साहित्यकार और हिन्दी प्रेमी उपस्थित थे। दिल्ली के अतिरिक्त दूसरे राज्यों से भी साहित्यकारों की उपस्थिति ने समारोह की गरिमा को विशेष रूप से बढ़ाया। कार्यक्रम के अंत में चतुर्थ प्रवासी हिन्दी उत्सव के मुख्य संयोजक अनिल जोशी ने सभी का धन्यवाद ज्ञापन किया।
अक्षरम् संगोष्ठी ब्यूरो