29 December, 2005

-डॉ.कुँअर बेचैन की कविताएँ

दिन दिवंगत हुए

रोज़ आँसू बहे रोज़ आहत हुए
रात घायल हुई, दिन दिवंगत हुए
हम जिन्हें हर घड़ी याद करते रहे
रिक्त मन में नई प्यास भरते रहे
रोज़ जिनके हृदय में उतरते रहे
वे सभी दिन चिता की लपट पर रखे
रोज़ जलते हुए आख़िरी ख़त हुए
दिन दिवंगत हुए !

शीश पर सूर्य को जो सँभाले रहे
नैन में ज्योति का दीप बाले रहे
और जिनके दिलों में उजाले रहे
अब वही दिन किसी रात की भूमि पर
एक गिरती हुई शाम की छत हुए !
दिन दिवंगत हुए !

जो अभी साथ थे, हाँ अभी, हाँ अभी
वे गए तो गए, फिर न लौटे कभी
है प्रतीक्षा उन्हीं की हमें आज भी
दिन कि जो प्राण के मोह में बंद थे
आज चोरी गई वो ही दौलत हुए ।
दिन दिवंगत हुए !

चाँदनी भी हमें धूप बनकर मिली
रह गई जिंन्दगी की कली अधखिली
हम जहाँ हैं वहाँ रोज़ धरती हिली
हर तरफ़ शोर था और इस शोर में
ये सदा के लिए मौन का व्रत हुए।
दिन दिवंगत हुए!


-डॉ० कुँअर बेचैन


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सोख न लेना पानी

सूरज !
सोख न लेना पानी !

तड़प तड़प कर मर जाएगी
मन की मीन सयानी !
सूरज, सोख न लेना पानी !

बहती नदिया सारा जीवन
साँसें जल की धारा
जिस पर तैर रहा नावों-सा
अँधियारा उजियारा
बूँद-बूँद में गूँज रही है
कोई प्रेम कहानी !
सूरज, सोख न लेना पानी !


यह दुनिया पनघट की हलचल
पनिहारिन का मेला
नाच रहा है मन पायल का
हर घुँघुरू अलबेला
लहरें बाँच रही हैं
मन की कोई बात पुरानी !
सूरज, सोख न लेना पानी !


-डॉ० कुँअर बेचैन

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वर्ना रो पड़ोगे !

बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।

हैं हवा के पास
अनगिन आरियाँ
कटखने तूफान की
तैयारियाँ
कर न देना आँधियों को
रोकने की भूल
वर्ना रो पड़ोगे।

हर नदी पर
अब प्रलय के खेल हैं
हर लहर के ढंग भी
बेमेल हैं
फेंक मत देना नदी पर
निज व्यथा की धूल
वर्ना रो पड़ोगे।

बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।


-डॉ० कुँअर बेचैन

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चल हवा

चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल
चल वहाँ तक जिस जगह मेरी प्रिया
गा रही होगी नई ताजा गजल
चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल।

चल जहाँ मेरा अमर विश्वास है
आत्माओ में मिलन की प्यास है
आज तक का तो यही इतिहास है
है जहाँ मधुवन वहीं पर रास है
मिल गया जिसकों कि कान्हा का पता
कौन राधा है जरा तू ही बता
जो कन्हैया से करेगी प्रीति छल
चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल।

मत फँसा सुख चक्र दुख की कील में
मत उठा तूफान दुख की झील में
हो सके तो रख नये जलते दिये
आस के बुझते हुए कंदील में
तू हवा है कर सुरभि का आचमन
छोड़कर अपने पुराने ये बसन
तू नए अहसास के कपड़े बदल
चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल।

चल जहाँ तक बाँसुरी की धुन चले
फूल की खुशबू चले, गुनगुन चले
भीग जा तू प्रति के हर रंग में
साथ जब तक प्राण का फागुन चले
पूछ मत अब जा रहा हूँ मैं कहाँ
चल प्रतीक्षा में खड़े होंगे जहाँ
एक नीली झील, दो नीले कमल
चल हवा, उस ओर मेरे साथ चल।


-डॉ० कुँअर बेचैन

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लौट आ रे

लौट आ रे !
ओ प्रवासी जल !
फिर से लौट आ !

रह गया है प्रण मन में
रेत, केवल रेत जलता
खो गई है हर लहर की
मौन लहराती तरलता
कह रहा है चीख कर मरुथल
फिर से लौट आ रे!
लौट आ रे !
ओ प्रवासी जल !
फिर से लौट आ !

सिंधु सूखे, नदी सूखी
झील सूखी, ताल सूखे
नाव, ये पतवार सूखे
पाल सूखे, जाल सूखे
सूख्सने अब लग गए उत्पल,
फिर से लौट आ रे !
लौट आ रे !
ओ प्रवासी जल !
फिर से लौट आ !


-डॉ० कुँअर बेचैन

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जिस मृग पर कस्तूरी है


मिलना और बिछुड़ना दोनों
जीवन की मजबूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे,
जितनी हममें दूरी है।

शाखों से फूलों की बिछुड़न
फूलों से पंखुड़ियों की
आँखों से आँसू की बिछुड़न
होंठों से बाँसुरियों की
तट से नव लहरों की बिछुड़न
पनघट से गागरियों की
सागर से बादल की बिछुड़न
बादल से बीजुरियों की
जंगल जंगल भटकेगा ही
जिस मृग पर कस्तूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे,
जितनी हममें दूरी है।

सुबह हुए तो मिले रात-दिन
माना रोज बिछुड़ते हैं
धरती पर आते हैं पंछी
चाहे ऊँचा उड़ते हैं
सीधे सादे रस्ते भी तो
कहीं कहीं पर मुड़ते हैं
अगर हृदय में प्यार रहे तो
टूट टूटकर जुड़ते हैं
हमने देखा है बिछुड़ों को
मिलना बहुत जरूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे,
जितनी हममें दूरी है।


-डॉ० कुँअर बेचैन

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17 April, 2005

प्रवासी हिन्दी बाल कविताएँ

बालकविताएँ
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सुमन कुमार घेई
जन्म - 1952, अम्बाला
1973 से कनाड़ा में
हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान

-सुमन कुमार घेई

गुड्डू राजा, गुड्डू राजा
रोता रहता बजता बाजा
दीदी उसकी उसे बहलाए
नित नई कहानी सुनाए
गुड्डू को कुछ भी न भाए
बस रोता जाए रोता जाए
अम्मा उसे लोरी सुनाती
कभी दे ढपकी सुलाती
कभी गोद में उठा के घूमे
कभी उसे झूला झुलाती
पापा बोले कुछ दुखता होगा
अरे कोई डाक्टर बुलाओ
मुझे बहुत काम है
इसे भई चुप कराओ
भैय्या चीखा अबे गुड्डू राजा
बन्द कर अपना ेसुरा बाजा
तू यूँ ही सबको तंग करता है
बस कर अब चुप करके सो जा
... और गुड्डू राजा सो गया।

-सुमन कुमार घेई

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दीपिका जोशी 'संध्या'
जन्म स्थान- नागपुर (महाराष्ट्र में)
8 वर्ष से कुवैत में अपने पति के साथ
'अनुभूति- अभिव्यक्ति' ई-पत्रिका की टीम की सदस्य
पता-
v.v.Joshi, Gulf engineering company,
P.O.Box 13087¸ Safat 22668
Kuwait.

परीक्षा
आज मेरी परीक्षा
जल्दी आई रिक्शा
मां बाबा औ'दीदी
सबने भेजा जल्दी
ठीक रखना ध्यान
उत्तर देना छान
धींगा मस्ती बंद
छेड़ छाड़ बंद
तभी होंगे तुम पास
वर्ना फिर नापास
शाला होगी बंद
घूमना स्वछंद
नहीं भाई नहीं भाई
मुझे समझ नहीं आई
पास होना मुझे क्या
नापास होना मुझे क्या
शाला कर दो बंद
मुझे घूमना स्वछंद
-दीपिका जोशी 'संध्या'


मैंने नहीं पढ़ा
घड़ी में बजा एक, मां ने दिया केक
खाने में समय चढ़ा, मैंने नहीं पढ़ा
घड़ी में बजे दो, फोन लगा बाबा को
बातों में समय चढ़ा, मैंने नहीं पढ़ा
घड़ी में बजे तीन, खूब बजाई बीन
बजाते समय चढ़ा, मैंने नहीं पढ़ा
घड़ी में बजे चार, बारिश की बौछार
भीगने में समय चढ़ा, मैंने नहीं पढ़ा
घड़ी में बजे पांच, दीदी ने किया नाच
देखने में समय चढ़ा, मैंने नहीं पढ़ा
घड़ी में बजे छे, रटा तीन दूनी छे
पहाड़ा आगे नहीं बढ़ा, मैंने नहीं पढा।
घड़ी में बजे सात, गंदे हो गए हाथ
धोने में ही समय चढ़ा, मैंने नहीं पढ़ा।
घड़ी में बजे आठ, कक्षा में बच्चे साठ
गिनने में समय चढ़ा, मैंने नहीं पढ़ा
घड़ी में बजे नौ किसने बोए जौ
जौ में बीज बड़ा मैंने नहीं पढ़ा
घड़ी में बजे दस, गली में बोली बस
बस में कोई चढ़ा मैने नहीं पढ़ा
दस के बाद नींद ने ज़ोर से जकड़ा
सोने को चल पड़ा मैंने नहीं पढ़ा
-दीपिका जोशी 'संध्या'


मेरा झूला
मेरा झूला लालेलाल
ज़रा बैठ कर देखो चाल
अभी स्र्का है धरती पर
अभी पेंग वो मारेगा
खड़े रहो उस पर सीधे
और ज़ोर से भागेगा
हवा लगेगी गारेगार
हवा में मेरा एक सवार
आगे पीछे होते यार
झूलें हम तुम बारंबार
ऐसा रंग जमाता खेल
समय डालता नहीं नकेल
-दीपिका जोशी 'संध्या'


खरगोश
दरवाजे में ताला
खरगोश गया शाला
ज़ोर ज़ोर नगाड़ा
खरगोश पढ़े पहाड़ा
दो एकम दो दो दुनी चार
बड़ी ज़ोर से गुजरी कार
दो तिया छे दो चौके आठ
पूरा कर लो अपना पाठ
जर्ल्दीजल्दी पढ़ी कहानी
एक था राजा एक थी रानी
गुरूजी हंस बोले शाब्बाश
खरगोश बोला कर दो पास
-दीपिका जोशी 'संध्या'

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बाल कविता
-कौशिक चटर्जी
देखो देखो आज बर्फ़ गिरी है
सफ़ेद मखमली प्यारी प्यारी है
चलो चिन्टू मोनू को बुलायें
सफ़ेद बर्फ़ के गुड्डे बनायें
गोल मटोल से लगते प्यारे
गाजर की नाक लगाये सारे
आ गया क्रिसमस का मौसम
घर बाहर आओ कर दें रोशन
अरे क्या हुआ राजू क्यों उदास
चलो चल कर पूछें उसके पास
मम्मी बोली उसकी अब के
नहीं होंगे क्रिसमस पे तोहफ़े
उसने साल भर मां को सताया
इसीलिये ऐसा दंड पाया
सैन्टा बाबा उनको तोहफ़ा देते
जो मम्मी-पापा का कहा सुनते
आओ हम अच्छे बच्चे बन जायें
क्रिस्मस में मन के तोहफ़े पायें
-कौशिक चटर्जी
जन्म: २४ नवम्बर, कलकत्ता
सम्प्रति कनाडा में निवास
अभियंता
विशेष शौक: किताबें पढना, डाक टिक्ट संग्रह

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मेरी छतरी
-मानोशी चटर्जी
टपटप गिरी बारिश की बूंदें
आओ निकालें छतरी खोलें
पापा ने ली छतरी काली
मेरी रंग बिरंगी वाली
संग मेरे स्कूल को जाती
और शाम को वापस आती
छोटी है पर मन को भाती
बारिश से है मुझे बचाती
देखो बारिश हो गयी बंद
भाग गया बादल का झुंड
तेज़ धूप अब निकली देखो
फिर से अपनी छतरी खोलो
मैं क्यों डरूँ देख कर पानी
मेरी दोस्त है छतरी रानी
तेज धूप या बरसात
हरदम देती मेरा साथ
खिलौने की दुकान
रंगबिरंगे कितने खिलौने
हाथी घोडे, गुड्डे सलौने
देख रहा मैं खडा हैरान
कितनी सुन्दर है दुकान
खिल खिल हंसती देखो गुडिया
नाच दिखाती लाल बंदरिया
चाभी वाला बंदर आता
ढम ढम ढम ढम ढोल बजाता
काश मैं सब खिलौने ले पाता
मां ने कहा कि एक खिलौना
आये पसन्द उसे ले आना
मुझे पसन्द है लाल गाडी
हाथ के इशारे पे चलने वाली
पर घर में मेरी छोटी बहन
खेल न सकेगी गाडी के संग
ले लेता हूं उसके लिये गुडिया
अपने लिये कोई किताब बढिया
मैं कहानी पढ़ उसे सुनाऊंगा
अच्छी अच्छी बातें बताऊंगा
हम दोनो मिल कर साथ खेलेंगे
हमेशा हंसते गाते रहेंगे
-मानोशी चटर्जी
Burnaby
British Columbia
V 5 E 1 J 7
Canada

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